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गोपालदास नीरज और असली श्रोता

मेरा किसी भी बड़े साहित्यकार के साथ कोई निजी संस्मरण तो नहीं हैं, किंतु एक सामान्य श्रोता के रूप में मैंने कई महान कवियों को मंच पर कविता पाठ करते प्रत्यक्ष रूप में सुना है, जो आज तक स्मृति पटल पर ज्यों का त्यों अंकित हैं। अपनी टूटी-फूटी भाषा में लिखने की चेष्टा कर रहा हूँ।  ये सत्तर के दशक के अंत और अस्सी के दशक के आरंभ के समय की बात है। हम लोग तब स्कूली छात्र थे।मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड प्रक्षेत्र में छतरपुर ज़िला मुख्यालय में वर्ष में कम से कम दो बार बड़े कवि सम्मेलन निश्चित रूप से हुआ करते थे। एक शारदीय नवरात्रि में दुर्गा जी के पंडाल के समक्ष और दूसरा दशहरा और दीपावली के मध्य कार्तिक मास में जलविहार के मेले में। दोनों ही कवि सम्मेलनों में उस समय देश के मूर्धन्य कविगण जैसे काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, ओम प्रकाश आदित्य, सुरेश चक्रधर, सरोजिनी प्रीतम, माया गोविंद, गोपालदास नीरज, शैल चतुर्वेदी, सुरेंद्र शर्मा इत्यादि भाग लिया करते थे। मुझे भी इन कवि सम्मेलनों में इन महान कवियों से उनकी रचनाएँ उनके द्वारा सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हल्की गुलाबी ठंड में श्रोता शाम ७ बजे से लेकर प्रातः...

विष्णु प्रभाकर, गोपालदास नीरज और मैं

सबका अभिवादन!  यह सर्वविदित है कि एक साहित्यकार का परिचय हमें उनकी रचनाधर्मिता और कृतित्व के माध्यम से मिल पाता है। उनकी रचनाओं में उनके अंतर और बाह्य रूप के दर्शन होते हैं, पर इससे भी अधिक अंतरंग पहलू को हम तब जान पाते हैं जब हमें व्यक्तिगत अनुभव होते हैं।  मैं आदरणीय गोपालदास नीरज जी से संबंधित एक ऐसा ही निजी अनुभव अपनी लेखनी की सामर्थ्यानुसार आप सबके समक्ष रख रही हूँ। बात वर्ष २००२ या २००३ की है। मैं उस समय कनाडा, टोरोंटो में अपने छोटे भाई सुधीर के पास आई हुई थी। वहाँ के एक प्रसिद्ध लेखक श्याम त्रिपाठी जी मिलने आए। वे अहिंदी भाषी देश में हिंदी की त्रैमासिक पत्रिका 'हिंदी चेतना' निकालने का सराहनीय कार्य कर रहे थे और अभी भी कर रहे हैं। वे बच्चन जी के ऊपर एक विशेषांक निकालना चाह रहे थे। इसके लिए वे बराबर बच्चन परिवार और अमिताभ बच्चन से संपर्क करने की कोशिश करते रहे, पर बड़े दुखी होकर उन्होंने बताया कि किसी ने घास नहीं डाली। बच्चन जी पर सामग्री न मिलने के कारण पत्रिका निकालना उनके लिए संभव नहीं था, अतः बड़े हताश थे। मुझसे उन्होंने बड़ी आशा के साथ इस कार्य में सहयोग देने का अनुर...

उपेन्द्रनाथ 'अश्क' के साथ कुछ दिन

१९७६ की बात है। मैं नया-नया इलाहाबाद आया  हुआ था। अल्लापुर में एक किराये के मकान में  रहता था। वहाँ से इलाहाबाद विश्वविद्यालय और  डॉ० रामकुमार वर्मा के आवास की दूरी करीब डेढ़ कि०मी०  है। मैं कभी-कभी पैदल ही चला आता था आनंद  भवन तक। फिर वहाँ से विश्वविद्यालय। उन दिनों  डॉ० लक्ष्मीशंकर वार्ष्णेय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में  हिंदी विभागाध्यक्ष थे। मैं उनसे मिला। बहुत ही नेक  स्वभाव के विमल व्यक्तित्व थे। अद्भुत सहृदयता थी  उनमें। उनसे पहली बार मिलकर लगा ही नहीं कि वे  अपरिचित हैं। मैं उन दिनों प्रकृति विषयक लघु  कविताएँ लिखा करता था। एक नाट्य-रचना  'प्रतिशोध' जिसका सफल मंचन १९७४ में अपने गाँव  खेवली, वाराणसी में किया था, डॉ० वार्ष्णेय जी  को दिखाई तो उन्होंने कहा, ये दोनों रचनाएँ पंतजी  और रामकुमार वर्मा को दिखाओ। उन्होंने ही डॉ० राम कुमार वर्मा का पता दिया। पंत जी उन दिनों आकाश वाणी इलाहाबाद में थे। एक दिन उनसे मिला और  उसके तीन-चार दिन बाद डॉ० वर्मा जी से। दोनों महान  साहित्यकारों के दर्शन कर मन आह्लादित ...

पंडित नरेंद्र शर्मा को याद करते हुए

प्रयाग विश्वविद्यालय के एक कवि-सम्मेलन में मेरी भेंट उन से हुई ।  उस समय वे अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के कार्यालय में काम कर रहे थे और अँग्रेज़ी में एम. ए. कर चुके थे। मंच पर कविवर सुमित्रानंदन पंत, डॉक्टर रामकुमार वर्मा और 'बच्चन' जी विराजमान थे। पंत जी का  व्यक्तित्व उस समय बहुत ही मनमोहक था। उनका केश-वेश-विन्यास अनन्य था और अब भी है,  परंतु उन्हीं की बग़ल में एक सुकुमार युवक पर सबकी आँखें अटक अटक जाती थीं। सुंदर तो वे अब भी हैं, पर यौवन की बात ही और होती  है। गौरवर्ण आभा, सुंदर तराशी हुई नासिका, सुघर कपोल, सफ़ेद कालरदार कमीज़ और चुनटदार धोती, सुनहले फ्रेम का चश्मा, जो कपोलों की लाली को विशेष  आकर्षक बना देता था, बग़ल में माँग काढ़ कर एक ओर बालों की आधी चौड़ी पट्टी; जिन्हें उस मनोरम आकृति को आत्मसात करने की  जिज्ञासा हो, वे भारती भंडार लीडर प्रेस में प्रकाशित 'प्रवासी के गीत' के १९३९ के संस्करण में उसकी झलक पा सकते हैं।" "जब उनका नाम पुकारा गया तो कुछ ऐसी भावना हुई कि कोई नवसिखिया किशोर मंच पर प्रोत्साहन हेतु प्रस्तुत किया जा रहा है। परंतु जैसे ही अपनी वेदना वि...

बाबूजी श्रद्धेय यशपाल जी जैन

मैं आज सबसे पहले अपने बाबूजी श्रद्धेय पद्मश्री यशपाल जी जैन का एक संस्मरण आप सबसे साझा कर रही हूँ। जैसे मैं आज भी भावुक हो रही हूँ आशा है आप के दिल को भी छू सके। यह प्रसंग १९५४ का है। हम दो-तीन परिवार कश्मीर गए थे। बड़े-छोटे मिलाकर लगभग बारह लोग थे। सब लोग कृष्णा हठीसिंह जी के आग्रह पर उनके निवास पर ठहरे थे। कृष्णा हठीसिंह नेहरू जी और विजयलक्ष्मी पंडित की सबसे छोटी बहन व एक प्रसिद्ध लेखिका भी थीं। मैं ग्यारह वर्ष की थी और छोटा भाई साढ़े आठ वर्ष का था।  हम दोनों ने पूरी यात्रा में बाबूजी को बहुत तंग किया। कभी भूख, कभी प्यास, कभी पेट में दर्द, कभी पैर में दर्द, कभी यह ज़िद तो कभी वह ज़िद। बाबूजी हँसते-हँसाते, हमें बहलाते फुसलाते, हमारी हर बात का समाधान करते रहे। लेकिन एक दिन अम्मा ग़ुस्से से चिल्लाकर बोलीं, "परेशान कर दिया है इन बच्चों ने। अब इन्हें कभी साथ नहीं लाऐगें।" अम्मा की यह बात मुझे चुभ गई। अगले दिन जब सब घूमने के लिए रवाना होने लगे तो मैं अड़ गई कि हम तो परेशान करते हैं, हम नहीं जाऐगें। अम्मा ने पहले प्यार से ख़ूब समझाया, फिर डाँटा, पर मैं टस से मस नहीं हुई। किसी दूसर...

आप खुशबू हैं किताबों में मिलेंगे!

नब्बे वर्ष का लंबा जीवन, लगभग छह दशक का रचनाकर्म! संभवतः कुछ अधूरी कहानियाँ और संस्मरण! दुनिया में किस व्यक्ति को ज़िंदगी में सबकुछ मिला है? मन्नू जी, आपका लिखना रुका, पर कम लिखकर यश  भी  तो खूब मिला - यह क्या कम है? मन्नू भंडारी, कथाकार से भी पहले अध्यापिका के रूप में मेरे मन की स्मृतियों में बसती हैं। विद्यार्थी जीवन में उन्हें मैडम अधिक और कथाकार कम - इस रूप में जानती रही। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध कॉलेज मिरांडा हाउस में बी०ए० की कक्षाओं में उनसे हिंदी पढ़ना, फिर एम०ए० करते हुए समकालीन कथा साहित्य पर उनसे संवाद .. ये स्मृतियाँ भुलाए जाने के लिए नहीं हैं। अच्छी तरह याद है.. बी०ए० ऑनर्स हिंदी के दूसरे साल में, मन्नू जी के साथ गोदान पर वह पहली क्लास .. छोटी छोटी नाजुक उँगलियों वाले उनके हाथों से बनती वे नाज़ुक आकृतियाँ.. और वह रोचक अभिव्यक्ति तो कभी भुलाई ही न जा सकी, जब कथासाहित्य के पेपर में कहानी विशेष पर टिप्पणी करते हुए मन्नू जी ने कहा - "ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों सज्जन की बात बात में बात!" कड़क कलफ़ वाली सुंदर सूती साड़ियाँ और छोटे से माथे पर गहरे मेहरू...

सरल, सहज और स्नेही - हजारी प्रसाद द्विवेदी

एम० ए० में पाश्चात्य नाट्यशास्त्र की कक्षा के बाद डॉक्टर कैलाशपति ओझा जी ने बताया कि उनके श्वसुर आचार्य द्विवेदी जी उनके घर ठहरे हुए हैं,उनसे मिलना हो तो मुझे फ़ोन कर देना। मैं, सुरेश ऋतुपर्ण और राकेश जैन 'मित्रत्रयी' नाम से साप्ताहिक हिंदुस्तान में  लिखा करते थे। हमने संपादक मनोहर श्याम जोशी जी को द्विवेदी जी के दिल्ली में कुछ दिन उपलब्ध होने के विषय में बताया। वे प्रसन्न हुए और हमें कहा कि हम आचार्य जी से संस्कृति और सभ्यता विषयक एक दीर्घ साक्षात्कार ले लें। कहाँ परम विद्वान द्विवेदी जी और कहाँ हम तीन तिलंगे! इतने गहन विषय पर उनसे क्या बातचीत करें; क्या सवाल पूछें? अवसर बड़ा था, हमने खूब तैयारी की 'साहित्य कोश'  खंगाल डाला, दिनकर जी के 'संस्कृति के चार अध्याय' को उलटा-पलटा और मिशन को पूरा करने पहुँच गए। मित्रत्रयी का आत्मविश्वास जागृत करने में आचार्य द्विवेदी जी का अत्यंत सहयोग मिला। हमारे प्रश्नों के उत्तर देने में उन्होंने कोई समय नहीं लगाया, ऋतुपर्ण और मैं पूछ रहे थे, राकेश लिखते जा रहे थे। द्विवेदी जी के वक्तव्यों में बहुत से संस्कृत श्लोक भी थे। बीच-बीच म...