नीरज की याद

नीरज जी साहित्य की दुनिया में एक आधारशिला सदृश्य थे। उन्होंने अपने साहित्य कर्म के कारण देश और समाज को गीतों के माध्यम से एक नया युग दिया। अविस्मरणीय उनकी हर रचना है, हर गीत है।

एक छोटा-सा ही किस्सा है, हमारे अपने साथ का...

हमें अपना गीत-संग्रह प्रकाशित करना था और हम चाहते थे कि हमारे इस गीत-संग्रह के गीतों की समीक्षा कोई बहुत बड़ा गीतकार अपनी प्रस्तावना के रुप में लिखें।

हमारी फिल्म इंडस्ट्री की गीतकार माया गोविंद जी से अक्सर बात होती रहती थी, वे बात बहुत अच्छे से बात करती थी। हमने उनसे अपने एक दो दिवसीय साहित्य सम्मेलन में आने का आग्रह किया जो कि जलगाँव में प्रतिवर्ष आयोजित होता था,पर उनका कहना था कि वे ट्रेन मैं सफ़र नहीं कर पाएँगी क्योंकि उस समय उनकी कमर में बहुत ज्यादा प्रॉब्लम हुआ था। उनका कहना था कि हम फ्लाइट में आ सकते हैं। लेकिन हमारे शहर में फ्लाइट एयरपोर्ट नहीं होने के कारण यह बात हुई कि मुंबई से सरगाँव हालांकि ७ घंटे का रास्ता है लेकिन उन्होंने सिरे से मना कर दिया। काफ़ी दिनों बाद हमारा गीत संग्रह जब प्रकाशित होना था, हमने उनसे समीक्षा हेतु निवेदन किया, इस बार वे तुंरत राजी हो गई। प्रस्तावना लिखने पर हमें मुंबई के कुछ लोगों ने कहा कि प्रियंका जी कभी फ़िल्म लाइन से जुड़े लोगों को अपना लिखा कुछ भी नहीं देना चाहिए ये सब कब आपका लिखा अपने नाम से दुनिया के सामने पेश कर देते हैं हमें पता ही नहीं चलता। तो हम भी लोगों की कही-सुनी बातों में आ गए कि कहीं हमारे गीतों के साथ भी तो ऐसा हो गया तो? फिर हमने अपने गीत की पूरी कॉपी नहीं भेजी ही नहीं। ये २०१३ के आसपास की बात है।

फिर एक मित्र ने कहा कि आप नीरज जी से लिखवा लिजिए। हमने कहा नेकी और पूछ पूछ! आश्चर्य हुआ कि इतने बड़े व्यक्ति हमारे गीत संग्रह के लिए समीक्षा लिखेंगे! उन्होंने कहा कोशिश करने में तो कोई समस्या नहीं है। उनका नीरज जी के पास आना-जाना लगा रहता था। एक दिन उन्होंने नीरज जी से हमारी फोन पर बात कराई। पहले तो औपचारिक बातें हुई जैसे आप कहाँ रहती हैं?, क्या करती हैं?, कौन कौन सी विधा में लिखती हैं? हमने सभी बातों का बहुत ही अच्छे से खुशी-खुशी जवाब दिए। क्योंकि हमारे लिए ये ही बहुत बड़ी बात थी कि नीरज जी से हमारी बात हो रही है। उस समय उन्होंने हमारे कुछ गीतों को भी सुना और बहुत तारीफ़ की। हाँ उस समय भी उनकी तबीयत बहुत ख़राब थी। थोड़ी-थोड़ी देर में बात करते-करते खाँस रहे थे। बीच में किसी से पानी भी लाने को कहा। हमारे गीत सुनने के बाद उन्होंने कहा भी कि गीत बहुत अच्छे हैं, हम जरूर समीक्षा लिखकर देते पर तबीयत नासाज़ लग रही है। हम आपके गीत संग्रह समीक्षा हेतु मंगवालें और ना जाने कितने समय तक हमारे पास पड़े रहें, हम नहीं लिख पाए तो ऐसी स्थिति में आप किसी और से लिखवा लें। हमारा मन मायूस हो गया। पर उनकी एक बात ने हमारे मन में अनोखी ऊर्जा का संचार किया कि
"अरे बेटा, किसी से अपने लिखे पर क्या समीक्षा लिखवानी, हमारे अपने लिखे पर क्या कोई समीक्षा कर पाएगा हमारे अपने ज़ज्बात है, हमारी अपनी भावना है, हमारी भावनाओं को कोई नहीं समझ पाता। जो हम लिखते हैं और जिस समय हम लिखते हैं उस वक्त हम किस परिस्थिति से गुज़रते हैं, वह कोई नहीं समझ पाता है। तो बेहतर यह होता है कि हमें अपने लिखे की समीक्षा अक्सर अपने द्वारा ही लिखनी चाहिए।

हमारे दिल पर उनकी बातों का बहुत-बहुत असर हुआ और हमने अपने गीत संग्रह जिसका नाम 'झील का दर्पण' है, उसमें किसी से भी समीक्षा नहीं लिखवाई। उसके बाद एक और काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ, 'सिगरेट' नाम से उस पर भी किसी की समीक्षा नहीं ली।

नीरज जी ने शायद एक-एक शब्द सच कहा था। पर अब समय ऐसा हो गया है कि हमारी लिखी किताबों पर कोई बड़ा व्यक्ति अगर समीक्षा कर देता है, तो हमारी किताबों के मायने बहुत बढ़ जाते हैं।

नीरज जी के लिए

वो हिम्मत करके पहले अपने अंदर से निकलते हैं,
बहुत कम लोग है जो घर को फूंक के घर से निकलते हैं।
जो मोती है वो धरती पे कहीं पाए नहीं जाते,
हमेशा कीमती मोती समंदर से निकलते हैं।

- डॉ० प्रियंका सोनी "प्रीत", जलगाँव की स्मृति से

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