कवि गोपालदास नीरज

नमस्कार साथियों, 

कवि नीरज से जुड़ा अपना एक संस्मरण साझा कर रहा हूँ। मुझे अनायास ही काफ़ी पुराना एक प्रसंग याद आ रहा है। अपनी नौकरी के शुरुआती बरसों में, सन सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध तक मैं चित्तौड़ में पदस्थापित रहा। उस ज़माने में चित्तौड़-भीलवाड़ा में कवि सम्मेलन खूब ही हुआ करते थे। बहुत बड़े-बड़े कवि सम्मेलन, दस-पंद्रह हज़ार की उपस्थिति और सारी-सारी रात चलने वाले। नीरज, काका हाथरसी, बालकवि बैरागी, सोम ठाकुर, संतोषानंद  आदि उन दिनों कवि सम्मेलनों के सुपरस्टार हुआ करते थे। अगर कोई कवि लालकिले पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलन में काव्य पाठ कर आता था तो जैसे उसके सुर्खाब के पर लग जाया करते थे।

तो हुआ यह कि किसी कवि सम्मेलन में नीरज जी हमारे शहर में आए। तब तक फ़िल्मों में भी वे काफ़ी कामयाब हो चुके थे और हर कवि सम्मेलन में उनसे 'मेरा नाम जोकर', 'शर्मीली', 'प्रेम पुजारी', 'छुपा रुस्तम' वगैरह के उनके लिखे लोकप्रिय गीतों को सुनाने की फरमाइश की जाती थी और वे भी खुशी-खुशी उन फरमाइशों को पूरा करते थे। ज़ाहिर है कि इस तरह की रचनाओं और कुछ और लोकप्रिय गीतों जैसे 'कारवाँ गुज़र गया' वगैरह में ही सारा समय बीत जाता और वे  नया कुछ तो कभी सुना ही नहीं पाते। मैं उनसे मिलने गया और बातों का सिलसिला कुछ ऐसा  चला कि मैं उनसे यह कह बैठा कि कवि सम्मेलनों में उनसे फ़िल्मी गाने सुनकर मुझे बहुत निराशा होती है। और भी काफ़ी कुछ कह दिया मैंने उनसे। उन्होंने बहुत धैर्य से मेरी बातें सुनी और फिर बड़ी शालीनता से मुझसे दो बातें कही। एक तो यह कि इन सब बातों से वे भी परिचित हैं, लेकिन यह उनकी मज़बूरी है कि जिन लोगों ने अच्छे-खासे पैसे देकर उन्हें बुलाया है, उन्हें वे खुश करें और दूसरी यह कि उनके पास भी अच्छी और नई कविताएँ हैं, लेकिन उन्हें सुनने वाले कहाँ हैं? इसके जवाब में मैंने उनसे कहा कि सुनने वाले तो हैं लेकिन उनके पास आपको देने के लिए बड़ी धन राशि नहीं है। नीरज जी ने कहा कि अगर सच्चे कविता सुनने वाले मिलें तो वे बिना पैसे लिए भी उन्हें अपनी कविताएँ सुनाने को तैयार हैं। उनके इस प्रस्ताव को मैंने तुरंत लपक लिया और उन्हें अपने कॉलेज में काव्यपाठ के लिए ले गया। विद्यार्थियों से मैंने कहा कि नीरज जी बिना एक भी पैसा लिए हमारे यहाँ केवल इसलिए आए हैं कि हम उनसे सिर्फ़ और सिर्फ़ कविताएँ सुनना चाहते हैं, इसलिए आप उनसे कोई फरमाइश न करें। जो वे सुनाना चाहें वह सब उन्हें सुनाने दें। 

आज मैं इस बात को याद करके चमत्कृत होता हूँ कि नीरज जी ने लगभग दो घंटे अपनी बेहतरीन कविताएँ सुनाईं, और मेरे विद्यार्थियों ने पूरी तल्लीनता और मुग्ध भाव से उन्हें सुना। इसके बाद मैंने ही नीरज जी से अनुरोध किया कि हमारे विद्यार्थियों ने इतने मन से आपको सुना है, अब अगर आप इनकी पसंद के दो-एक गीत भी सुना दें तो बहुत मेहरबानी होगी। नीरज जी की उदारता देखिए कि उन्होंने विद्यार्थियों की फ़रमाइश पर अपने सारे लोकप्रिय फ़िल्मी गीत भी एक-एक करके सुना दिए! लेकिन उस दिन मुझे महसूस हुआ कि 'छुपे रुस्तम हैं हम क़यामत की नज़र रखते हैं' और 'ओ मेरी शर्मीली'  जैसे गाने लिखने और सुनाने वाले नीरज के भीतर एक कवि उदास और इस इंतज़ार में बैठा है कि कोई आए और उससे कुछ सुनने की इच्छा ज़ाहिर करे!

- दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की स्मृति से।

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