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Showing posts from March, 2023

गोपालदास नीरज और असली श्रोता

मेरा किसी भी बड़े साहित्यकार के साथ कोई निजी संस्मरण तो नहीं हैं, किंतु एक सामान्य श्रोता के रूप में मैंने कई महान कवियों को मंच पर कविता पाठ करते प्रत्यक्ष रूप में सुना है, जो आज तक स्मृति पटल पर ज्यों का त्यों अंकित हैं। अपनी टूटी-फूटी भाषा में लिखने की चेष्टा कर रहा हूँ।  ये सत्तर के दशक के अंत और अस्सी के दशक के आरंभ के समय की बात है। हम लोग तब स्कूली छात्र थे।मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड प्रक्षेत्र में छतरपुर ज़िला मुख्यालय में वर्ष में कम से कम दो बार बड़े कवि सम्मेलन निश्चित रूप से हुआ करते थे। एक शारदीय नवरात्रि में दुर्गा जी के पंडाल के समक्ष और दूसरा दशहरा और दीपावली के मध्य कार्तिक मास में जलविहार के मेले में। दोनों ही कवि सम्मेलनों में उस समय देश के मूर्धन्य कविगण जैसे काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, ओम प्रकाश आदित्य, सुरेश चक्रधर, सरोजिनी प्रीतम, माया गोविंद, गोपालदास नीरज, शैल चतुर्वेदी, सुरेंद्र शर्मा इत्यादि भाग लिया करते थे। मुझे भी इन कवि सम्मेलनों में इन महान कवियों से उनकी रचनाएँ उनके द्वारा सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हल्की गुलाबी ठंड में श्रोता शाम ७ बजे से लेकर प्रातः...

विष्णु प्रभाकर, गोपालदास नीरज और मैं

सबका अभिवादन!  यह सर्वविदित है कि एक साहित्यकार का परिचय हमें उनकी रचनाधर्मिता और कृतित्व के माध्यम से मिल पाता है। उनकी रचनाओं में उनके अंतर और बाह्य रूप के दर्शन होते हैं, पर इससे भी अधिक अंतरंग पहलू को हम तब जान पाते हैं जब हमें व्यक्तिगत अनुभव होते हैं।  मैं आदरणीय गोपालदास नीरज जी से संबंधित एक ऐसा ही निजी अनुभव अपनी लेखनी की सामर्थ्यानुसार आप सबके समक्ष रख रही हूँ। बात वर्ष २००२ या २००३ की है। मैं उस समय कनाडा, टोरोंटो में अपने छोटे भाई सुधीर के पास आई हुई थी। वहाँ के एक प्रसिद्ध लेखक श्याम त्रिपाठी जी मिलने आए। वे अहिंदी भाषी देश में हिंदी की त्रैमासिक पत्रिका 'हिंदी चेतना' निकालने का सराहनीय कार्य कर रहे थे और अभी भी कर रहे हैं। वे बच्चन जी के ऊपर एक विशेषांक निकालना चाह रहे थे। इसके लिए वे बराबर बच्चन परिवार और अमिताभ बच्चन से संपर्क करने की कोशिश करते रहे, पर बड़े दुखी होकर उन्होंने बताया कि किसी ने घास नहीं डाली। बच्चन जी पर सामग्री न मिलने के कारण पत्रिका निकालना उनके लिए संभव नहीं था, अतः बड़े हताश थे। मुझसे उन्होंने बड़ी आशा के साथ इस कार्य में सहयोग देने का अनुर...

उपेन्द्रनाथ 'अश्क' के साथ कुछ दिन

१९७६ की बात है। मैं नया-नया इलाहाबाद आया  हुआ था। अल्लापुर में एक किराये के मकान में  रहता था। वहाँ से इलाहाबाद विश्वविद्यालय और  डॉ० रामकुमार वर्मा के आवास की दूरी करीब डेढ़ कि०मी०  है। मैं कभी-कभी पैदल ही चला आता था आनंद  भवन तक। फिर वहाँ से विश्वविद्यालय। उन दिनों  डॉ० लक्ष्मीशंकर वार्ष्णेय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में  हिंदी विभागाध्यक्ष थे। मैं उनसे मिला। बहुत ही नेक  स्वभाव के विमल व्यक्तित्व थे। अद्भुत सहृदयता थी  उनमें। उनसे पहली बार मिलकर लगा ही नहीं कि वे  अपरिचित हैं। मैं उन दिनों प्रकृति विषयक लघु  कविताएँ लिखा करता था। एक नाट्य-रचना  'प्रतिशोध' जिसका सफल मंचन १९७४ में अपने गाँव  खेवली, वाराणसी में किया था, डॉ० वार्ष्णेय जी  को दिखाई तो उन्होंने कहा, ये दोनों रचनाएँ पंतजी  और रामकुमार वर्मा को दिखाओ। उन्होंने ही डॉ० राम कुमार वर्मा का पता दिया। पंत जी उन दिनों आकाश वाणी इलाहाबाद में थे। एक दिन उनसे मिला और  उसके तीन-चार दिन बाद डॉ० वर्मा जी से। दोनों महान  साहित्यकारों के दर्शन कर मन आह्लादित ...

पंडित नरेंद्र शर्मा को याद करते हुए

प्रयाग विश्वविद्यालय के एक कवि-सम्मेलन में मेरी भेंट उन से हुई ।  उस समय वे अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के कार्यालय में काम कर रहे थे और अँग्रेज़ी में एम. ए. कर चुके थे। मंच पर कविवर सुमित्रानंदन पंत, डॉक्टर रामकुमार वर्मा और 'बच्चन' जी विराजमान थे। पंत जी का  व्यक्तित्व उस समय बहुत ही मनमोहक था। उनका केश-वेश-विन्यास अनन्य था और अब भी है,  परंतु उन्हीं की बग़ल में एक सुकुमार युवक पर सबकी आँखें अटक अटक जाती थीं। सुंदर तो वे अब भी हैं, पर यौवन की बात ही और होती  है। गौरवर्ण आभा, सुंदर तराशी हुई नासिका, सुघर कपोल, सफ़ेद कालरदार कमीज़ और चुनटदार धोती, सुनहले फ्रेम का चश्मा, जो कपोलों की लाली को विशेष  आकर्षक बना देता था, बग़ल में माँग काढ़ कर एक ओर बालों की आधी चौड़ी पट्टी; जिन्हें उस मनोरम आकृति को आत्मसात करने की  जिज्ञासा हो, वे भारती भंडार लीडर प्रेस में प्रकाशित 'प्रवासी के गीत' के १९३९ के संस्करण में उसकी झलक पा सकते हैं।" "जब उनका नाम पुकारा गया तो कुछ ऐसी भावना हुई कि कोई नवसिखिया किशोर मंच पर प्रोत्साहन हेतु प्रस्तुत किया जा रहा है। परंतु जैसे ही अपनी वेदना वि...

बाबूजी श्रद्धेय यशपाल जी जैन

मैं आज सबसे पहले अपने बाबूजी श्रद्धेय पद्मश्री यशपाल जी जैन का एक संस्मरण आप सबसे साझा कर रही हूँ। जैसे मैं आज भी भावुक हो रही हूँ आशा है आप के दिल को भी छू सके। यह प्रसंग १९५४ का है। हम दो-तीन परिवार कश्मीर गए थे। बड़े-छोटे मिलाकर लगभग बारह लोग थे। सब लोग कृष्णा हठीसिंह जी के आग्रह पर उनके निवास पर ठहरे थे। कृष्णा हठीसिंह नेहरू जी और विजयलक्ष्मी पंडित की सबसे छोटी बहन व एक प्रसिद्ध लेखिका भी थीं। मैं ग्यारह वर्ष की थी और छोटा भाई साढ़े आठ वर्ष का था।  हम दोनों ने पूरी यात्रा में बाबूजी को बहुत तंग किया। कभी भूख, कभी प्यास, कभी पेट में दर्द, कभी पैर में दर्द, कभी यह ज़िद तो कभी वह ज़िद। बाबूजी हँसते-हँसाते, हमें बहलाते फुसलाते, हमारी हर बात का समाधान करते रहे। लेकिन एक दिन अम्मा ग़ुस्से से चिल्लाकर बोलीं, "परेशान कर दिया है इन बच्चों ने। अब इन्हें कभी साथ नहीं लाऐगें।" अम्मा की यह बात मुझे चुभ गई। अगले दिन जब सब घूमने के लिए रवाना होने लगे तो मैं अड़ गई कि हम तो परेशान करते हैं, हम नहीं जाऐगें। अम्मा ने पहले प्यार से ख़ूब समझाया, फिर डाँटा, पर मैं टस से मस नहीं हुई। किसी दूसर...

आप खुशबू हैं किताबों में मिलेंगे!

नब्बे वर्ष का लंबा जीवन, लगभग छह दशक का रचनाकर्म! संभवतः कुछ अधूरी कहानियाँ और संस्मरण! दुनिया में किस व्यक्ति को ज़िंदगी में सबकुछ मिला है? मन्नू जी, आपका लिखना रुका, पर कम लिखकर यश  भी  तो खूब मिला - यह क्या कम है? मन्नू भंडारी, कथाकार से भी पहले अध्यापिका के रूप में मेरे मन की स्मृतियों में बसती हैं। विद्यार्थी जीवन में उन्हें मैडम अधिक और कथाकार कम - इस रूप में जानती रही। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध कॉलेज मिरांडा हाउस में बी०ए० की कक्षाओं में उनसे हिंदी पढ़ना, फिर एम०ए० करते हुए समकालीन कथा साहित्य पर उनसे संवाद .. ये स्मृतियाँ भुलाए जाने के लिए नहीं हैं। अच्छी तरह याद है.. बी०ए० ऑनर्स हिंदी के दूसरे साल में, मन्नू जी के साथ गोदान पर वह पहली क्लास .. छोटी छोटी नाजुक उँगलियों वाले उनके हाथों से बनती वे नाज़ुक आकृतियाँ.. और वह रोचक अभिव्यक्ति तो कभी भुलाई ही न जा सकी, जब कथासाहित्य के पेपर में कहानी विशेष पर टिप्पणी करते हुए मन्नू जी ने कहा - "ज्यों केले के पात पात में पात, त्यों सज्जन की बात बात में बात!" कड़क कलफ़ वाली सुंदर सूती साड़ियाँ और छोटे से माथे पर गहरे मेहरू...

सरल, सहज और स्नेही - हजारी प्रसाद द्विवेदी

एम० ए० में पाश्चात्य नाट्यशास्त्र की कक्षा के बाद डॉक्टर कैलाशपति ओझा जी ने बताया कि उनके श्वसुर आचार्य द्विवेदी जी उनके घर ठहरे हुए हैं,उनसे मिलना हो तो मुझे फ़ोन कर देना। मैं, सुरेश ऋतुपर्ण और राकेश जैन 'मित्रत्रयी' नाम से साप्ताहिक हिंदुस्तान में  लिखा करते थे। हमने संपादक मनोहर श्याम जोशी जी को द्विवेदी जी के दिल्ली में कुछ दिन उपलब्ध होने के विषय में बताया। वे प्रसन्न हुए और हमें कहा कि हम आचार्य जी से संस्कृति और सभ्यता विषयक एक दीर्घ साक्षात्कार ले लें। कहाँ परम विद्वान द्विवेदी जी और कहाँ हम तीन तिलंगे! इतने गहन विषय पर उनसे क्या बातचीत करें; क्या सवाल पूछें? अवसर बड़ा था, हमने खूब तैयारी की 'साहित्य कोश'  खंगाल डाला, दिनकर जी के 'संस्कृति के चार अध्याय' को उलटा-पलटा और मिशन को पूरा करने पहुँच गए। मित्रत्रयी का आत्मविश्वास जागृत करने में आचार्य द्विवेदी जी का अत्यंत सहयोग मिला। हमारे प्रश्नों के उत्तर देने में उन्होंने कोई समय नहीं लगाया, ऋतुपर्ण और मैं पूछ रहे थे, राकेश लिखते जा रहे थे। द्विवेदी जी के वक्तव्यों में बहुत से संस्कृत श्लोक भी थे। बीच-बीच म...

कामिल बुल्के जी के व्यक्तित्व की पुण्य स्मृति में

सुदूर दक्षिण में रहनेवाली मुझे भी पुण्यात्मा कामिल बुल्के जी के दर्शन का सौभाग्य मिला। यह १९७२-७३ की बात है। मैं उस्मानिया विश्वविश्वविद्यालय में एम०ए० हिंदी की छात्रा थी। "एशिया के देशों में राम कथा" के संदर्भ में उन्होंने व्याख्यान दिया। प्रशांत मुद्रा में उनके भाषण के साथ उनका व्यक्तित्व भी झलक रहा था। तब मुझे समझ में आया कि किसी भी भाषा पर कोई अन्य भाषाभाषी भी साधिकार बोल सकता है, बशर्ते कि परिश्रम के साथ उस भाषा के प्रति प्रेम हो। प्रेम के कारण परिश्रम का समय भी आनंददायक होता है। हिंदी विभाग में थोड़ी सहमी सकुचायी-सी रहती थी। मेरे आचार्य बनारस हिंदू विश्वविद्यालय एवं लखनऊ विश्वविद्यालय के थे। विवाह के बाद मैं हैदराबाद आयी। मैं गोदावरी किनारे पर बसे राजमहेंद्री नगर की हूँ। फादर कामिल बुल्के मेरे प्रेरणास्रोत रहे। आज से पचास साल पहले उन्होंने मुझ में साहस जगाया। ख़ैर, व्याख्यान का दिन आज मेरी स्मृति में फ़ोटो जैसे सुरक्षित है। बड़ा हॉल पचास-साठ विद्यार्थी एवं अन्य विशिष्ट व्यक्तियों से भरा था। व्याख्यान के बाद मैंने भी प्रश्न पूछा था। राम के संदर्भ में उनका यह उद्धरण आज भी...

कामिल बुल्के से मैं भी मिला था!

डॉ० फ़ादर कामिल बुल्के से मैं भी मिला था! बेल्जियम से थे! उनके हिंदी शब्दकोश से अधिक प्रामाणिक  शायद ही कोई दूसरा हो! वे रामायण पर रिसर्च करना चाहते थे, परंतु मृत्यु ने उन्हें हम सबसे छीन लिया! बीआइटी रांची में भी कई बार आए थे। दो बार तो स्वयं मैं उन्हें लेकर आया काॅलेज में समारोह के लिए। (इंजीनियरिंग के चौथे वर्ष में मैं अपने काॅलेज में भारतीय साहित्य परिषद के संपादन विभाग का अध्यक्ष रहा, और कई वर्षों के बाद वार्षिक पत्रिका रचना १९८४ छापी, जो श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा उद्घाटित भारतीय विज्ञान कांग्रेस का विशेष संस्करण थी, और पहली बार रंगीन फोटो छपे थे, श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा उद्घाटन के भी)। डॉ० फ़ादर कामिल बुल्के चर्च और मंदिर, दोनों जगह समान सम्मान पाते थे और दो-तीन बार उनके मुंह से मैंने सुना था, कि राम सबके हैं, और रामायण किसी एक धर्म विशेष का धर्म ग्रंथ नहीं है बल्कि विश्व ग्रंथ है। डॉ० फ़ादर कामिल बुल्के के व्यक्तित्व के आस-पास भी अगर कोई रहा, तो धार्मिक सहिष्णुता उस व्यक्ति के मन में स्थिर हो गई।  उनकी बुराई करने वाला मुझे आज तक कोई मिला ही नहीं। मुझे ठीक से याद न...

फादर कामिल बुल्के

१९६८ की बात रही होगी, मैं विज्ञान स्नातक के प्रथम वर्ष का छात्र था, हिंदी हमारा विषय नहीं थी, केवल फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथमेटिक्स। जमशेदपुर की कोऑपरेटिव कॉलेज बनफ कॉलेज मानी जाती थी, छात्रों की संख्या के अनुसार और क्षेत्रफल के अनुसार भी। एक विभाग से दूसरे विभाग में हम साईकल से जाया करते थे। फिर लाइब्रेरी, कैंटीन, कॉमन रूम इत्यादि इत्यादि सब अलग। हमारी कॉलेज  रांची विश्वविद्यालय का हिस्सा  थी और कॉलेज के हिंदी के विभागाध्यक्ष डॉ० सत्यदेव ओझा थे, पतले-दुबले लंबे, हर छात्र उनकी बहुत इज्जत करता था, मेरे जैसा छात्र भी। रांची विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ० फादर कामिल बुल्के थे, वे सेवियर रांची के भी विभागाध्यक्ष थे। उनका शब्द कोश नया-नया आया था और पूरे भारत में चर्चा का विषय था। तभी एक नोटिस लगी कि फलां तारीख को थिएटर नंबर ४ में उनका व्यक्तव्य होगा, जो विद्यार्थी सुनना चाहें समय से पहले स्थान ग्रहण करें। हम कुछ विज्ञान के विद्यार्थी जिन्हें हिंदी से प्रेम था, वे भी गए। अच्छा रौबीला चेहरा, दाढ़ी युक्त, बोलने का अंदाज़ इतना प्रभावी कि व्यक्ति बरबस ही आकर्षित हो जाए।...

खरगौन में कवि सम्मेलन

सबसे अलग मेरी एक आपबीती भी सुन लीजिए। बात सन १९८२ की है। खरगौन में कवि सम्मेलन था। जिसमें बालकवि बैरागी जी, नीरज जी, हास्य कवि शैल चतुर्वेदी जी सहित कई कवि शामिल थे। नीरज जी उस दिन कुछ ज्यादा ही मूड में थे। भारी भीड़ में लोगों ने शोर मचाना शुरु कर दिया। स्थिति गंभीर होती देखकर आयोजक भाग गए। लोग स्टेज पर चढ़कर हुल्लड़ करने लगे। व्यवस्था को बिगड़ता देखकर मैं अपने फ़ोर्स सहित स्टेज पर गया और इन महानुभावों को सुरक्षित निकालने के लिए लगभग डाँटता हुआ सा उठाया और सबको अपनी गाड़ी में बैठाकर लेकर भागा। पीछे-पीछे लोगों की भीड़। मैं बड़ी मुश्किल से लोगों को समझा पाया कि इन सब को गिरफ्तार किया जाएगा। मैं इन सब को लेकर सर्किट हाउस आया जहाँ मैं उन दिनों रहता था। एक कमरे में इन्हें बंद कर मैं तुरंत घटना स्थल पर वापस गया और भीड़ को नियंत्रित किया। फिर उस दिन कार्यक्रम नहीं हो सका। उपद्रव करने वाले कुछ लोगों को भी गिरफ्तार किया गया। करीब सुबह चार बजे मैं लौटकर आया।अपनी यूनीफ़ॉर्म उतारकर मैंने आदरणीय नीरज जी से माफी माँगी और कहा कि यह नाटक करने के अलावा आपकी सुरक्षा का कोई चारा नहीं था। बालकवि बैरागी जी...

सुबह की आरती में गूँजती चौपाई हैं नीरज

हाँ, वो क़िस्सा भी मज़ेदार था। हुआ यूँ कि नीरज जी सब से पहले तो अमेरिका में हमारे घर ही आए (वही उनका 'base' होना था। उन के १० कार्यक्रम पहले से तय थे। वाशिंगटन डीसी हमारे घर से क़रीब ३ घंटे की ही दूरी पर है, वहाँ के श्रोता भी जाने-पहचाने हुए हैं। कई बार वहाँ कवि सम्मेलनों में जाना होता रहा है। वहाँ हमारे मित्र और गीतों के राजकुमार राकेश खंडेलवाल जी भी रहते हैं। इसलिए यह तय हुआ कि पहला कवि सम्मेलन वहीं होगा। यह भी तय हुआ कि हम सब हमारे घर से सुबह नाश्ते के बाद चल कर दोपहर तक राकेश खंडेलवाल जी के घर पहुँचेंगे, वहाँ दोपहर का भोजन होगा और फिर कुछ आराम के बाद शाम को कवि सम्मेलन। मैंने एक दिन पहले राकेश जी को अपने घर के रास्ते के निर्देश भेजने को कह दिया था। राकेश जी बेहद अच्छे आशु कवि हैं, खड़े-खड़े किसी भी विषय पर छंदबद्ध कविता लिखे देते हैं। माँ सरस्वती का उन पर वरद्हस्त है। उन्होंने हमारे घर से अपने घर तक के निर्देश (कहाँ बाएँ लेना है, कहाँ दाएँ ….) पूरी छंदबद्ध कविता के रूप में ईमेल से भेज दिए। मैंने उसे ऐसे ही मज़ाक़ के तौर पर प्रिंट कर किया लेकिन फिर कंप्यूटर से सही निर्देश भी...

नीरज की याद

नीरज जी साहित्य की दुनिया में एक आधारशिला सदृश्य थे। उन्होंने अपने साहित्य कर्म के कारण देश और समाज को गीतों के माध्यम से एक नया युग दिया। अविस्मरणीय उनकी हर रचना है, हर गीत है। एक छोटा-सा ही किस्सा है, हमारे अपने साथ का... हमें अपना गीत-संग्रह प्रकाशित करना था और हम चाहते थे कि हमारे इस गीत-संग्रह के गीतों की समीक्षा कोई बहुत बड़ा गीतकार अपनी प्रस्तावना के रुप में लिखें। हमारी फिल्म इंडस्ट्री की गीतकार माया गोविंद जी से अक्सर बात होती रहती थी, वे बात बहुत अच्छे से बात करती थी। हमने उनसे अपने एक दो दिवसीय साहित्य सम्मेलन में आने का आग्रह किया जो कि  जलगाँव में प्रतिवर्ष आयोजित  होता था,पर उनका कहना था कि वे ट्रेन मैं सफ़र नहीं कर पाएँगी क्योंकि उस समय उनकी कमर में बहुत ज्यादा प्रॉब्लम हुआ था। उनका कहना था कि हम फ्लाइट में आ सकते हैं। लेकिन हमारे शहर में फ्लाइट एयरपोर्ट नहीं होने के कारण यह बात हुई कि मुंबई से सरगाँव हालांकि ७ घंटे का रास्ता है लेकिन उन्होंने सिरे से मना कर दिया। काफ़ी दिनों बाद हमारा गीत संग्रह जब प्रकाशित होना था, हमने उनसे समीक्षा हेतु निवेदन किया, इस बार वे...

लिखना तुम्हें साँसे देगा - नीरज (एक छोटी सी मुलाकात)

नीरज जी वास्तव में बहुत सरल व्यक्ति थे। उनसे अचानक हुई एक मुलाकात याद आती है। यह छोटा सा संस्मरण नीरज जी के प्रयाण पर दैनिक जागरण में भी प्रकाशित हुआ था...... लगभग ३० वर्ष पहले जब मैं मैत्रेयी कॉलेज में अँग्रेज़ी ऑनर्स पाठ्यक्रम की द्वितीय वर्ष की छात्रा थी, तब एक दिन बस में मिले थे नीरज। एक सीट पर सफे़द कुर्ते-पाजामे में कुछ उम्रदराज से व्यक्ति को शांत अकेले बैठे देखा तो हैरत सी हुई। संयोग से और कोई सीट खाली ना होने के कारण मुझे उन्हीं के साथ बैठना पड़ा।  उन्होंने सहज ही पूछा, यह बस कितनी देर में चलेगी। मैंने उत्तर दिया, "बस अभी भर गई है, तो जल्दी ही चल पड़ेगी।"  कुछ और सामान्य से उनके प्रश्न, "यहाँ पढ़ती हो?, कौन से कोर्स में? कौन सा साल? आदि। बता दिया, और फिर मैंने भी पूछ लिया, "आप यहाँ कैसे?" तो वे बोले, तुम्हारी प्रिंसिपल से मिलने आया था, "ओह!" संक्षिप्त सा उत्तर देकर मैं चुप हो गई, अब प्रिंसिपल के परिचित से छात्र क्या कहे! ज़रा रुककर वे बोले - "मेरा नाम नीरज है, गीत लिखता हूँ।" मैं हतप्रभ थी, नीरज!!!  मैं चेहरे से वाकिफ़ नहीं थी क्योंक...

कवि गोपालदास नीरज

नमस्कार साथियों,  कवि नीरज से जुड़ा अपना एक संस्मरण साझा कर रहा हूँ। मुझे अनायास ही काफ़ी पुराना एक प्रसंग याद आ रहा है। अपनी नौकरी के शुरुआती बरसों में, सन सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध तक मैं चित्तौड़ में पदस्थापित रहा। उस ज़माने में चित्तौड़-भीलवाड़ा में कवि सम्मेलन खूब ही हुआ करते थे। बहुत बड़े-बड़े कवि सम्मेलन, दस-पंद्रह हज़ार की उपस्थिति और सारी-सारी रात चलने वाले। नीरज, काका हाथरसी, बालकवि बैरागी, सोम ठाकुर, संतोषानंद  आदि उन दिनों कवि सम्मेलनों के सुपरस्टार हुआ करते थे। अगर कोई कवि लालकिले पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलन में काव्य पाठ कर आता था तो जैसे उसके सुर्खाब के पर लग जाया करते थे। तो हुआ यह कि किसी कवि सम्मेलन में नीरज जी हमारे शहर में आए। तब तक फ़िल्मों में भी वे काफ़ी कामयाब हो चुके थे और हर कवि सम्मेलन में उनसे 'मेरा नाम जोकर', 'शर्मीली', 'प्रेम पुजारी', 'छुपा रुस्तम' वगैरह के उनके लिखे लोकप्रिय गीतों को सुनाने की फरमाइश की जाती थी और वे भी खुशी-खुशी उन फरमाइशों को पूरा करते थे। ज़ाहिर है कि इस तरह की रचनाओं और कुछ और लोकप्रिय गीतों जैसे 'कारव...

ममता कालिया

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मैं भी ममता जी से जुड़ी एक याद साझा करना चाहती हूँ, जो शायद उन्हें याद भी न हो। बात सन १९९८ के आसपास की है। कुछ समय पहले ही मैंने अपने विवाहित जीवन में प्रवेश किया था। इलाहाबाद में अपनी गृहस्थी की शुरुआत के लिए मकान की तलाश में हम ममता जी के घर की तरफ़ भी गए। उन दिनों मुझे पढ़ने के महत्व, चयन या उसके व्यापक रूप की जानकारी के बगैर सिर्फ पढ़ने से प्रेम था। प्रतिष्ठित अख़बार में कार्यरत मेरे पति 'शहर के विशिष्ट परिचय' पर एक शृंखला कर रहे थे, उन्होंने मुझे इस शानदार दंपत्ति से मिलवाया। बहुत अफ़सोस के साथ इसे मेरी अज्ञानता ही कहूँगी कि इन दोनों के सुंदर व्यक्तिव से प्रभावित होते हुए भी मेरा सारा उत्साह सिर्फ इस बात पर था कि मेरी मम्मी ममता जी की छात्रा रही हैं।  उनके लेखन, उनकी विशिष्टता, किसी भी बात को मैं एक प्रशंसक, पाठक या अमूल्य निधि पाने वाले व्यक्ति की तरह नहीं निभा पाई। आज बार-बार लगता है कि उस समय को जाकर पकड़ लाऊँ और पूरी तरह से अपने लिए जी लूँ, जब मेरे सामने हँसते-मुस्कुराते हुए रवींद्र जी और उनकी ढेर सारी बातें थीं। उनके स्नेह में भीगी ममता जी की वह दृष्टि और भाव मुझे अभ...

हरिशंकर परसाई जी के साथ

मैं होम साइंस कॉलेज जबलपुर में पढ़ती थी। शनिवार को मेरे लोकल गार्जियन बुआ के बेटे मुझे लिवाने आ जाते थे। वहीं दो घर छोड़कर नेपियर टाउन में बाबूजी किराए के मकान में रहते थे। वे अख़बार में लिखते थे। उन दिनों फिल्म फे़यर में अँग्रेज़ी में I.S. Johar (बॉलीवुड एक्टर और मेरे मामा) का question box और हिंदी समाचार पत्र "देशबंधु" में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे परसाई जी! इन दोनों का ही मुझे और मेरी सहेलियों को या कहो, लोगों को भी बेसब्री से इंतजार रहता था। मैं जब भी बाबूजी को मिलने जाती तो वे तख़्त पर बाहर बरामदे में लेटे होते थे, सीधे-साधे से कुर्ता पजामा पहने हुए। मेरे कॉलेज के हाल-चाल पूछते तो मैं उन्हें बहुत उत्साह से सब सुनाती थी। उस के बाद उठते और कहते चलो भीतर नाश्ता करते हैं। कभी-कभार वे जनसाधारण की रुचि की ऐसी तीखी बातें करते कि मुझे लगता, ये quick witty हैं। व्यंग्य लेखन से मैं अपरिचित थी, लेकिन रीडर्स डायजेस्ट पढ़ने के कारण, satire समझती थी। एक बार मालूम हुआ कि उनके व्यंग्य से जल-भुनकर कुछ लोगों ने उनकी पिटाई कर दी थी। वे कहने लगे, "मतलब साफ़ है कि मेरा लिखा बढ...

स्व० विष्णु प्रभाकर

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स्व० विष्णु प्रभाकर जी का पत्र आज पुराने रिकॉर्ड से प्राप्त हुआ। जब कभी उनके साथ पत्राचार होता था तो वे हमें पत्र द्वारा प्रोत्साहित करते थे।  हिंदी के महान लेखक स्व० विष्णु प्रभाकर जी से पत्र व्यवहार होता था। हिंदीतर नव लेखक होने के नाते हिंदी भाषा प्रचार-प्रसार के बारे में उनसे हमेशा मार्गदर्शन मिलता था। सामान्य पाठक के साथ आत्मीय रिश्ता बनाकर रखते थे। आश्चर्य होता था कि किस तरह अपने व्यस्त कार्यक्रम से समय निकालकर पत्र लिखते थे!  स्व० विष्णु प्रभाकर जी का पत्र - विजय नगरकर की स्मृति से।

ममता कालिया - पहाड़ की छांह में

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प्रिय लेखिका से फिर मिलना वह भी एक पत्र के बहाने! ममता कालिया अचानक मेरी प्रिय लेखिका नहीं बन गईं। उनका उपन्यास 'बेघर' पढ़ने के बाद एक लंबा अंतराल रहा। जब मैं हिंदी पढ़ाने विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में हंगरी के विख्यात ऐलते विश्वविद्यालय के भारत अध्ययन विभाग में पहुँची, तब मेरे कक्ष की अलमारी में ममता कालिया बहुविध बिराजी हुई थीं। मैं एक सिरे से उन्हें पढ़ती चली गई, उनके लेखकीय व्यक्तित्व से गहरे जुड़ती चली गई, इतना कि विभाग के इकलौते एम०ए० हिंदी के छात्र पीटर को सुझाया कि शोध के लिए ममता कालिया के कथा साहित्य पर विचार करो, उन्हें पढ़ने के बाद।    ठीक याद है कि 'बेघर' पढ़ने के बाद एक पत्र मैंने ममता जी को लिखा था - एक पाठक का प्रशंसा पत्र...। जो उनकी बेशुमार फैन मेल में से एक रहा होगा। लेकिन मेरे लिए, उस पत्र का उत्तर एक अकेला ही रहा। नहीं मालूम था कि आने वाले समय में ममता जी से साक्षात्कार होगा, कई रूपों में कई बार मिलना होगा और उनकी कृतियों से जी भरकर प्यार होगा...। इतना कि बहुतों से ललक कर कहूँ - ममता कालिया को पढ़ना! तुम्हें अच्छा लगेगा। आज ममता जी का वह पत्र साझा कर...

चित्रा मुद्गल- एक स्नेहमयी विदुषी...!

इस सोच में हैं कि सुप्रसिद्ध साहित्यकारा सुश्री चित्रा मुद्गल के व्यक्तित्व को किस दृष्टिकोण से प्रस्तुत करें,  एक नौ साल की बच्ची की दृष्टि से, जो पहली भेंट में ही उस विदुषी महिला को अपलक देखती रह गई थी। वह कौनसा आकर्षण था, जिसने उसे प्रथम दृष्टि से ही बाँध लिया लिया था!  या उस युवती के दृष्टिकोण से जिसने उन्हें बहुत ही करीब से देखा, उनके सुख-दुख में उनके साथ रही, उनकी खूबियों से बहुत कुछ सीखा! देखा कि वास्तव में फलों से लदे पेड़, झुके होते हैं, यह केवल उक्ति नहीं है।  आदरणीया चित्रा जी भी ऐसा ही एक वृक्ष हैं, जो सबपर अपनी ममता खुलकर बाँटती हैं। उनके घर से कभी कोई व्यक्ति भूखा नहीं गया। तब भी, जब महीने की पंद्रह तारीख के बाद सामान चुकने लगता था; तब भी जब घर में समृद्धि थी। बचपन की ओर ही चलते हैं। बचपन, जीवन का वह अविस्मरणीय दौर होता है, जब दुनिया बहुत खूबसूरत लगती है। जब चिंताएँ नहीं होती, जब गुल्लक-भर खुशियाँ होती हैं, जेब-भर दोस्त, और अंजुरी-भर सहेलियाँ। सारी शैतानियों में बराबर की साझेदार। फिर चाहे वह छत पर पढ़ाई के बहाने जाकर सूखने के लिए रखी इमली चुराकर खाना हो, या फि...